राष्ट्रीय हरित पंचाट के निवर्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्तिस्वतंत्र कुमार ने पर्यावरण के जटिल होते मुद्दों की तरफ इशारा करते हुए समाज को सोचने पर मजबूर कर दिया है। उनका यह कहना कि पहले यह मुद्दे इतने जटिल नहीं थे, समाजमें बढ़ती जटिलताओं और उसके समक्ष दरपेश खतरों के बारे में एक चेतावनी है। अपने दस साल के कार्यकाल में उन्होंने पुरानी गाड़ियों पर पाबंदी, गंगा यमुना के जीर्णोद्धार, पंजाब, दिल्ली और हरिद्वार में प्लास्टिक पर पाबंदी, श्री श्री रविशंकर की संस्था पर जुर्माना, वैष्णोदेवी में यात्रियों की संख्या सीमित करना और अमरनाथ में कुछ पाबंदियां लगाने जैसे कई महत्वपूर्ण फैसले दिए और उनके लागू होने और उपेक्षित होने के खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरने के बाद वे इस निष्कर्ष परपहुंचे। उनके इस कथन का पहला तात्पर्य नकारात्मक है और मानता है कि विकसित और जटिल होता समाज पर्यावरण को अधिक क्षति पहुंचा रहा है। उनका दूसरा अर्थ सकारात्मक है और कहता है कि पहले सरकारी संस्थाएं इतनी तेजी से कार्रवाई नहीं करती थीं, जितनी आज करती हैं। इस जटिलता के पीछे वह विकास है, जिसके तहत औद्योगिक गतिविधियों और शहरीकरण मेंनिरंतर वृद्धि हो रही है। विडंबना देखिए कि मनुष्य ही प्रकृति का अधिकतम विनाश कर रहा है और वही उसे बचाने के लिए सर्वाधिक प्रयास भी कर रहा है। सरकार और समाज के सामने उलझन यही है कि उसे बिजली भी चाहिए और नदी और पहाड़ भी, उसे वन, धरती और जीव जंतु भी चाहिए और कटान तथा खदान भी, यह जानते हुए कि वे एक-दूसरे के विरोधी हैं। राष्ट्रीय हरित पंचाट प्रकृति और विकास के इसी द्वंद्व के बीच समन्वय बैठाने का प्रयास कर रहा है। पिछले 25 वर्षों के उदारीकरण ने मानव की विकास की इच्छा को और तीव्र किया है और पर्यावरणीय चेतना को भी प्रखर किया है। पहले जिस तरह से पर्यावरण के सवाल को फैशन और अकादमिक सवाल समझा जाता था अब वह स्थित बदल गई है। पहले रोजी-रोटी बनाम पर्यावरण की बहस चलती थी। आज रोजी-रोटी और पर्यावरण एक तरफ आ गए हैं और दूसरी तरफ सिर्फ विनाश ही है। इसलिए राष्ट्रीय हरित पंचाट जैसी संस्था को समर्थ बनाना, उसमेंजजों और कर्मचारियों की पर्याप्त संख्या का होना तो जरूरी है ही, उत्पादन के उन साधनों पर भी विचार करना आवश्यक है जिनसे पर्यावरण खतरे में पड़ता है।
समाज में पर्यावरण की विकट चुनौती
राष्ट्रीय हरित पंचाट के निवर्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्तिस्वतंत्र कुमार ने पर्यावरण के जटिल होते मुद्दों की तरफ इशारा करते हुए समाज को सोचने पर मजबूर कर दिया है। उनका यह कहना कि पहले यह मुद्दे इतने जटिल नहीं थे, समाजमें बढ़ती जटिलताओं और उसके समक्ष दरपेश खतरों के बारे में एक चेतावनी है। अपने दस साल के कार्यकाल में उन्होंने पुरानी गाड़ियों पर पाबंदी, गंगा यमुना के जीर्णोद्धार, पंजाब, दिल्ली और हरिद्वार में प्लास्टिक पर पाबंदी, श्री श्री रविशंकर की संस्था पर जुर्माना, वैष्णोदेवी में यात्रियों की संख्या सीमित करना और अमरनाथ में कुछ पाबंदियां लगाने जैसे कई महत्वपूर्ण फैसले दिए और उनके लागू होने और उपेक्षित होने के खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरने के बाद वे इस निष्कर्ष परपहुंचे। उनके इस कथन का पहला तात्पर्य नकारात्मक है और मानता है कि विकसित और जटिल होता समाज पर्यावरण को अधिक क्षति पहुंचा रहा है। उनका दूसरा अर्थ सकारात्मक है और कहता है कि पहले सरकारी संस्थाएं इतनी तेजी से कार्रवाई नहीं करती थीं, जितनी आज करती हैं। इस जटिलता के पीछे वह विकास है, जिसके तहत औद्योगिक गतिविधियों और शहरीकरण मेंनिरंतर वृद्धि हो रही है। विडंबना देखिए कि मनुष्य ही प्रकृति का अधिकतम विनाश कर रहा है और वही उसे बचाने के लिए सर्वाधिक प्रयास भी कर रहा है। सरकार और समाज के सामने उलझन यही है कि उसे बिजली भी चाहिए और नदी और पहाड़ भी, उसे वन, धरती और जीव जंतु भी चाहिए और कटान तथा खदान भी, यह जानते हुए कि वे एक-दूसरे के विरोधी हैं। राष्ट्रीय हरित पंचाट प्रकृति और विकास के इसी द्वंद्व के बीच समन्वय बैठाने का प्रयास कर रहा है। पिछले 25 वर्षों के उदारीकरण ने मानव की विकास की इच्छा को और तीव्र किया है और पर्यावरणीय चेतना को भी प्रखर किया है। पहले जिस तरह से पर्यावरण के सवाल को फैशन और अकादमिक सवाल समझा जाता था अब वह स्थित बदल गई है। पहले रोजी-रोटी बनाम पर्यावरण की बहस चलती थी। आज रोजी-रोटी और पर्यावरण एक तरफ आ गए हैं और दूसरी तरफ सिर्फ विनाश ही है। इसलिए राष्ट्रीय हरित पंचाट जैसी संस्था को समर्थ बनाना, उसमेंजजों और कर्मचारियों की पर्याप्त संख्या का होना तो जरूरी है ही, उत्पादन के उन साधनों पर भी विचार करना आवश्यक है जिनसे पर्यावरण खतरे में पड़ता है।
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